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रामनगर की रामलीला:-

रामनगर की रामलीला भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी जिले के रामनगर क्षेत्र में मनाई जाने वाली प्रसिद्ध रामलीला कार्यक्रम है। यहां की रामलीला का आयोजन वर्षांत काल दशहरा उत्सव के अवसर पर होता है और यह कार्यक्रम बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।रामनगर की रामलीला का विशेषत:पुरातात्विक महत्व: यहां की रामलीला कार्यक्रम में पुरातात्विक सौंदर्य और धार्मिक महत्व का मिलन होता है। यहां के स्थलीय लोग विभिन्न पारंपरिक धार्मिक रूप, श्रृंगारिक वस्त्र और मेकअप में भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान आदि के चरणरज बद्ध होते हैं।आकर्षण: यहां के रामलीला कार्यक्रम बड़े ही आकर्षक होते हैं और लाखों लोग इसे देखने के लिए आते हैं। कार्यक्रम का आयोजन काशी के प्रमुख स्थलों में किया जाता है और वहां की बड़ी जगहों पर आकर्षण स्थल और दृश्यों का आयोजन किया जाता है।सांस्कृतिक परंपरा: रामनगर की रामलीला एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है और यह लोगों को हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण कथाओं और धार्मिक संदेशों के प्रति जागरूक करता है। रामनगर की रामलीला भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यहां के
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कबीर के राम :: डॉ. अभिषेक रौशन

आलेख : कबीर के राम - डॉ. अभिषेक रौशन सम्पादक, अपनी माटी  शनिवार, जुलाई 31, 2010 :-  कबीर के राम पर सोचते हुए मेरे मन में कई सवाल उठते हैं। कबीर के राम क्या हैं? परम्परा से आते हुए ‘राम’ और कबीर के राम में क्या अंतर है? कबीर विरोध और असहमति के जोश में निर्गुण राम को अपनाते हैं या इसके पीछे कोई ठोस सामाजिक कारण है? इसी सवाल से जुड़ा एक और सवाल है कि सगुण राम में ऐसी क्या अपर्याप्तता थी जिसके चलते कबीर को निर्गुण राम को चुनना पड़ा? कबीर ने निर्गुण राम की भक्ति की तो उसका विरोध हुआ क्या? अगर हाँ, तो क्यों? इस विरोध के पीछे सिर्फ़ भक्ति की प्रतिद्वंद्विता थी या इसके पीछे भी कोई सामाजिक कारण है? ये चंद सवाल ऐसे हैं जो कबीर के राम पर गहराई से सोचने को मजबूर कर देते हैं। कबीर के राम निर्गुण हैं, निराकार हैं, अगम्य हैं, इसकी चर्चा खूब हुई है। सगुण-निर्गुण के आध्यात्मिक विवाद से परे होकर भी क्या कबीर के राम को देखा जा सकता है? मैंने इसी प्रश्न पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। कबीर के पहले और बाद में राम-भक्ति की एक परम्परा मिलती है। वाल्मीकि से लेकर तुलसी और आधुनिक काल में निराला की

स्वतंत्र भारत के संत हैं, बाबासाहेब:-

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर 19वीं सदी के वे तपस्वी थे जिन्होंने शिक्षा का अलख जगा कर भारत के पिछड़े दलित गरीब असहाय समाज को शिक्षा का महत्व समझाया और बताया की शिक्षा शेरनी के उस दूध की तरह है जिसको पीने वाला दहाड़ता है, दहाड़ता है, दहाड़ता है।  मैं बाबा साहब को एक संत के रूप में मानता हूं जिसने हम सबको यह सिखाया है कि "संगठित रहो और संघर्ष करो"! *बाबा साहब द्वारा दो मूल मंत्र हम सब भारत वासियों को दिया गया है....* पहला यह शिक्षा से प्रेम करो, अच्छी से अच्छी शिक्षा लो, किन्हीं भी परिस्थितियों में रहो शिक्षा से दूर मत भागो, शिक्षा ही हमको संभल देगी, शक्ति देगी और अपने अधिकारों से को प्राप्त करने के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करेगी। दूसरा बाबा साहब ने कहा संगठित रह कर हमको संघर्ष करना है अपने लिए अपने समाज के लिए अपने शहर के लिए अपने प्रदेश के लिए अपने देश के लिए। अगर हम संगठित नहीं रहेंगे तो दुराचारी अत्याचारी और सत्ताधीश लोग हमारा लगातार दोहन करते रहेंगे और हमारे ऊपर अत्याचार करते रहेंगे। इसलिए संगठित रहकर, संघर्ष करना है। शिक्षा की अलख जगाए रखना है।  बाबा सा

कबीर :: शिरडी साईं :: महात्मा गांधी :-

कबीर ने करघे पर बैठकर ऐसी नायाब चादर बुनी, जिसे ऋषि-मुनि सबने ओढ़ी, फिर जस की तस धर दीनी चदरिया।  साईं बाबा चक्की में रोग-शोक पीसकर सबको मुक्त करते थे, परन्तु बाबा कबीर चलती चाकी देख रोते थे। ‘चलती चाकी देख दिया कबीरा रोय’ अथवा 'चक्की में जाकर कोई साबुत नहीं बचता'।  साईं बाबा मानते थे, आटे की तरह बिखराे मत, केन्द्र की तरफ जाओ। कबीर के कथन में न गेहूँ बचता है और न घुन।  साईं बाबा एवं कबीर, दोनों के ही बीच में चक्की जन कल्याण का अद्भुत उपकरण रहा हैं।  कैसी विचित्र बात है कि, कबीर के चार सौ साल बाद साईं बाबा ने चक्की को जनकल्याण के सन्देश का माध्यम बनाया और साईं बाबा के लगभग पाँच दशक बाद महात्मा गाँधी ने चरखे को परिवर्तन का ज़रिया बनाया।  जड़ के नीचे तीनाें संताें में एक समानता 'राम' का नाम रहा है। अगर कबीर 'निर्गुण राम' में रमे थे ताे साईं बाबा काे सब 'साईं राम' कह कर भजते हैं तथा गांधी 'हे राम' कह कर उपासना करते थे। यह भी एक जड़ हो सकती है, जिससे ये संत जुड़े थे।  चक्की व चरखा आध्यात्मिक और सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी माध्यम बन गये। प्रतीत हाेता ह

नफ़रत कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो ख़ुद ब ख़ुद बढ़ सके। इसे तो जब तक बढ़ाया नहीं जाएगा, यह बढ़ नहीं सकती:-

नफ़रत कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो ख़ुद ब ख़ुद बढ़ सके। इसे तो जब तक बढ़ाया नहीं जाएगा, यह बढ़ नहीं सकती। इस वक़्त समाज में नफ़रत अगर बढ़ रही है और तेज़ी से बढ़ रही है, तो यह इस बात का खुला सबूत है कि एक गिरोह ऐसा मौजूद है को इसे बढ़ाने कि कोशिश में लगा है और नई नई साजिश कर के नफ़रत को फ़ैला रहा है। अब समाज के जो लोग नफरतों से नफ़रत करते हैं, उन्हें चाहिए कि नफ़रत फैलाने वाले लोगों को पहचाने और उनको इससे रोकें। उनका हाथ पकड़ें और उन्हें ऐसी हर जगह से दूर रखें जहां से वह अपने गंदे ज़हन का इस्तेमाल करके लोगों के बीच में दुश्मनी पैदा कर सकें। यह न सिर्फ़ समाज और देश की ज़रूरत है, बल्कि यह इंसानियत को बचाने के लिए भी ज़रूरी है। अधिवक्ता अंशुमान दुबे वाराणसी  #AdvAnshuman #अंशुमानदुबे

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Advocate Anshuman Dubey, Candidate for Member Bar Council of Uttar Pradesh #AdvAnshuman